शुक्रवार, 10 जुलाई 2015

देने का सुख

मिटटी में दबा एक नन्हा बीज, धीरे से अपने अस्तित्व को बहार ले कर आया। 
कितनी मनमोहक ,कितनी सुन्दर, कितनी नाजुक है इसकी काया।
सूरज की रौशनी, चाँद की चांदनी है इसके साथी ,धूप हवा पानी का प्रेम पाकर है देखो कैसा इठलाया।
है इसे भी जल्दी बड़े होने की ,आसमान छूने की, सोचता है बड़ा होकर मैं दूंगा सबको छाया।
अपने फल और फूलो को बाँटकर लाऊंगा सबके चहरे पर ख़ुशी, खुद को देख कर वह मन ही मन मुस्काया।
उसकी मजबूत टहनियों में बनने लगे है घोसले और झूले ,देने लगा है दूसरो को सहारा सोचकर फूला न समाया ले ही रहा था आनंद वह ''देने के सुख '' का, तभी अचानक कुछ देखकर  वह घबराया ।
कट -कट कर गिर रही थी उसकी डाले ,घोंसले और झूले , क्यों हुआ वह बड़ा यह सोचकर बहुत पछताया।
उसकी लकडियो से सज रहे है घर औरो के,कट कर मर कर भी था उसने घर को सजाया।
आखिर ''देना ''व्यर्थ नही जाता है , जाते जाते भी है उसने बतलाया ……………।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें